पूरी दुनिया मे जैसे हमारी पुलिस के कारनामे मशहूर हैं ठीक वैसे ही पेल्हू पंडा… बनारस के पंडे भी दुनिया भर में मशहूर हैं। महिला से वीडियो कॉल पर बात करते हुए भले आशिक मिजाज दरोगा जी अपने कपड़े उतारने लग जाये, लेकिन फिर भी खाकी का इक़बाल बुलंद है ! भले ही कोर्ट के अंदर और बाहर चौराहों पर गोलियां तड़तड़ा उठें लेकिन फिर भी खाकी का इक़बाल बुलंद है ! भले ही सांसद जी चौकी में घुसकर खाकी की कुटाई कर दे लेकिन फिर भी कुछ खाकी का इक़बाल बुलंद है ! खैर छोड़िये !जैसे लोक परलोक का हिसाब बनारस के पेल्हु पंडे तय करते हैं ठीक वैसे ही अपनी खाकी भी लोक भूलोक का हिसाब तय करती रहती है । दोनो के बीच बड़ी सिमिलारिटी यह है कि हमारी खाकी इस लोक भूलोक का खाका खिंचती है तो पेल्हु पंडा लोक से लेकर परलोक, पुनर्जन्म और मोक्ष तक का हिसाब चुटकियों में सेट कर देते हैं। फ़िलहाल आज बात पेल्हु पंडों की करते हैं , खाकी के बारे में फिर कभी ।
पितरों को तार देने वाले बाधाओं को निवार देने वाले, दुश्मनों को मार देने वाले बनारस के पंडे अपनी अद्बभुत छिपी हुई ताकत से कुछ भी कर सकते हैं। वे अमेरिकी एटमी मिसाइलों से सुरक्षा का कवच तैयार कर सकते हैं। वे नासा से पहले मनुष्य को मंगल ग्रह पर सशरीर भेज सकते हैं.…और आप ये जानते हुए भी कि ये सब असंभव है, उन पर यकीन भी कर लेते हैं। यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। ठीक वैसे ही पेल्हू गुरु बनारसी पंडों के प्रतिनिधि चरित्र थे। लम्बे चौड़े, गौर वर्ण, पूरे ललाट पर अष्टछाप चंदन और बीच में रोली का गोल टीका, मुँह में पान की गिलौरी, आंखों में सूरमा, नंग धड़ंग बदन, सच्चा हीरा” ब्रांड की मसलिन धोती, कन्धे पर सोने की जरी वाला डबल बॉर्डर का दुपट्टा, गले में रुद्राक्ष आदि की दर्जन भर माला उनकी बॉंहों की गुल्लियॉं उनके कसरती शरीर की गवाही देती थीं। संस्कृत के नाम पर सिर्फ़ ”मासानाम उत्तमे मासे ‘मासानां अमुक मासे ,अमुक पक्षे ,जम्बू द्वीपे भरत खण्डे आर्यावर्त देशान्तरगते अमुक नाम संवतसरे …. पिता का नाम लीजिये, गंगा मइया का नाम लीजिये और फिर समर्पयामि कराते हैं”…..गुरू को बस इतना ही आता था। संस्कृत में उनकी जानकारी मात्र आज के पत्तलकारों मतलब पत्रकारों के बराबर भी नही थी । स्थिति यह थी कि यदि संस्कृत में उनसे बालक का रूप पूछ लीजिये तो ऐसे झटुआ जाते थे जैसे उनकी सगी औलाद का रंगरूप पूछ लिया हो । हॉं संकल्प मंत्र को पढ़ते-पढ़ते उसी स्टाइल में वे कभी गुरूआ जैसे अपशब्द और कभी-कभी मॉं बहन की धारा प्रवाह गाली भी दे लेते थे। पेल्हू गुरू मुँह अंधेरे ही घाट के अपने ठीहे पर आ जाते। च्यवनप्राश का सेवन करते, वहीं दंड पेलते, बावजूद उनका पेट कोहडे़ की तरह निकला था। फिर पेल्हू आराम से भांग छान अपने आसन पर विराज स्नानार्थियों का परलोक सुधारने में जुट जाते।
बनारस के घाटों पर विदेशी यात्रियों का जमावड़ा रहता है। उनको चराने के लिए पेल्हू गुरू काम चलाऊ अंग्रेज़ी भी जानते थे। “कमऑन मेमसाहेब दिस साइड” टाइप। पेल्हु गुरू विदेशी भक्तों से गंगा का पूजन और संकल्प अलग तरीक़े से कराते थे। यजमान को मूर्ख बनाने के लिए वे उनकी समस्याओं को भी संकल्प मंत्र में जोड़ देते हैं। विदेशियों का संकल्प वह अंग्रेजी में कराते और उनके समाज की सोशल प्रॉब्लम को वो संकल्प मंत्र में जोड़ देते थे ताकि विदेशी यजमान को ज्यादा अच्छे से समझ में आए और वसूली भी ठीक हो। पेल्हू विदेशी यात्रियों को संकल्प कराते वक्त उनके हाथ में नारियल, फूल, अक्षत देते। उसके बाद शुरू करते अंग्रेजी में संकल्प का कर्मकाण्ड। “दिस इज दशाश्वमेध घाट मॉर्निंग टाइम , इवनिंग टाइम डेली टाइम, यू कम टुगेदर गंगा, योर मनी कंट्रोल, योर हसबैंड कंट्रोल, योर वाइफ कंट्रोल, योर चाइल्ड कंट्रोल, पुट द कोकोनट ऑन हेड, एंड टेक द डिप इन होली मदर गंगा “ इस तरह पेल्हू विदेशी यजमानों से संकल्प कराते थे।बनारस के घाटों पर परंपरागत तरीके से पूजा पाठ, धार्मिक कार्य एवं कर्मकांड कराने वाले पुजारी को “पंडा” कहते हैं। पेल्हू गुरू बोलते कम थे पर उनकी नज़रें घाट की गतिविधियों पर चौकस रहतीं थी। गुरू चहकती महकती देवियों को प्रसाद बॉंटने को लालायित रहते और अपनी इस प्रवृत्ति के चलते वे ‘अछूतोद्धार’ मतलब घटियायी के लिए भी जाने जाते थे । अक्सर उन्हे मुँह अंधेरे घाट के किसी कोने अंतरे से कान पर जनेऊ टॉंग आते जाते देखा जाता। कार्य सम्पादित कर आते गंगा में खट से डुबकी लगाते और उनका सारा किया धरा धुल जाता होगा ऐसी उनकी मान्यता थी। फिर गुरू दूसरों का लोक परलोक बनाने में लग जाते। उनके ठीहे पर बॉंस की छतरी के नीचे ढेर सारी कंघी,आईना और कई रंग का चंदन होता। दक्षिणा के हिसाब से वे यजमानों को चंदन लगाते। कम पैसा देने वाले को सिर्फ एक टीका। ठीक ठाक आसामी को पूरे ललाट पर पीतल के खांचे से डिज़ाइनर टीका लगाते। गुरू मुल्तानी मिट्टी को चोकर में मिला कर कुछ ख़ास लोगों को नहाने के लिए भी देते और बताते कि इससे चमड़ी की आभा बनी रहती। लेकिन पेल्हू गुरू का छोटा लड़का बड़ा हरामी था। वो हमेशा उसे आवाज़ दे बुलाते रहते पर वो मौक़े से ग़ायब रहता। भीड़ भाड़ के समय टीका चंदन के लिए पेल्हू अपने इस लड़के को बुलाते लेकिन लड़कवा अपने बाप के नक्शे कदम पर चल निकला था इसलिए वह भी वहीं पर विदेशी महिलाओं के आंगिक सौन्दर्य को निहारता रहता। सीढ़ियों के नीचे बैठ उसकी नज़रें ऊपर बैठी विदेशी सैलानियों के भीतर तक झॉंकती चली जाती थी ।
उनका मंझला लड़का मोटी बुद्धि का था। जो तीज त्यौहार पर जब भीड़ ज़्यादा होती, तभी प्रकट होता। पता नहीं क्यों ! पिता का हाथ बँटाने या माल साफ़ करने। बड़ा वाला कुछ खिसक कर ( दिमाग़ी तौर पर ) लाइन बदल लिया था। उसने पेल्हू गुरू की चौकी के सामने ही मंदिर के नीचे एक छोटी चौकी रख अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उस पर एक तेलिया मसान की खोपड़ी रख वह खोई हुई ताक़त वापस लाता और वशीकरण व बाजीकरण की दवा भी देता था उसकी चौकी पर कई शीशियॉं होतीं जिसमें वह उल्लू की ऑंख, शेर का पंजा, गधे का नाखून, गैंडे की खाल, गूलर का फूल ,सॉंडे की पूँछ, घोड़े के शरीर के ख़ास इलाक़े वाला…. बाल, जैसे दुर्लभ तत्वों के रखने का दावा करता था। इन्हीं तत्वों से वो खोई हुई जवानी वापस लौटाने की तरकीब बताता। दूर दराज से आए तीर्थयात्रियों की वहॉं भीड़ होती। विदेशी भी कौतूहलवश वहॉं मौजूद रहते। लड़का भस्म भूत लगाता, विभिन्न रंगों के कपड़े पहनता। अब पेल्हू से ज़्यादा भीड़ उनके लड़के के अड्डे पर रहती। इसलिए पेल्हू गुरू उससे नाराज़ रहते थे। लगातार भुनभुनाते और कहते “अधकपारी हौ सरवा ओहर मत जैहौ। नाहीं त तोहरो दिमाग़ घूम जाईं ” गुरू का वह लड़का मन से अड़ियल, देह से कड़ियल और स्वभाव से उत्पाती था। हालाँकि ग्रहण और दूसरे स्नान पर्व पर वो भी गोदान कराने गुरू के ठीहे पर ही होता क्योंकि उस रोज़ इधर आमदनी ज्यादा होती थी।
बनारस के गंगा घाट कभी सोते नहीं । रात बारह बजे तक लोग वहॉं अड्डेबाजी करते। फिर तड़के तीन बजे से नहाने वालों का रेला लगता। बनारस के आस पास के इलाक़ों से लोग आधी रात से ही गंगा स्नान के लिए आना शुरू कर देते हैं। ऐसा महान दृश्य देखकर ऐसा प्रतीत होता जैसे इस दुनिया से परे भी एक दुनिया है। जहॉं न एटम बम है, न जीवन की बेबसियाँ। सारी दुनिया का ग़म घाट पर चिलम की एक कश और गंगा में एक डुबकी में निकल जाता है। हर बड़े पर्व पर चाहे कितनी ही कड़कती ठंड हो गंगा मे डुबकी लगाने वालों की कमी नहीं होती थी । गंगास्नान, दान और लौटते वक्त ताज़ी सब्जियॉं ख़रीद ज्यादातर लोग घर लौटते थे। दिसम्बर जनवरी के महीनों में बेइंतहा ठण्ड भी पड़ती थी । स्नान के बाद गोदान होता। महज़ आठ आने और सवा रूपये में लोग गोदान का पुण्य कमा लेते थे । कड़कड़ाती ठण्ड में तड़के टाट से ढके बछड़ों की सिर्फ़ पूँछ ही दिखाई पड़ती जिसे पकड़ दर्शनार्थी गोदान करते थे। एक ऐसा ही वाकया दिसम्बर या जनवरी का रहा होगा। चन्द्रग्रहण था। आधी रात के बाद स्नान शुरू हुआ। सड़कों और घाट पर तिल रखने की जगह नहीं थी । घाट पर लोग ही लोग थे, कुछ सूझ नहीं रहा था। पानी में डुबकी लगाते ही सुध बुध खो रही थी। पेल्हू गुरू की चौकी पर कपड़ा रख हमारे परिचित स्नान करने जाने वाले ही थे कि पेल्हू चिल्लाए।” कपड़वा हमरे गद्दी के नीचे रख द, भीड़ बहुत हौउ,गिरहकट घूमत हउऊन।” पेल्हू गुरू के तीनों लड़के अपनी अपनी बछिया को टाट ओढ़ा अंधेरे में गोदान करा रहे थे। पानी बरस रहा था, हमारे परिचित सामने से ठण्ड से कांपते हुए अपने गोदान की बारी में थे। आठ आने और सवा रूपये के संकल्प के साथ गोदान हो रहा था। बछिया की सिर्फ पूँछ बाहर थी। बाक़ी शरीर ठण्ड से बचाने के लिए टाट से ढका था। जिस बछिया की पूंछ पकड़ पेल्हु गुरू का बालक लोगो को वैतरिणी पार करा था, वह पौ फटते ( उजाला होते ) ही ज़ोर ज़ोर से चींपो-चींपो चिल्लाने लगी। लोगों ने देखा अरे यह तो गधा है।पकड़ो पकड़ो का हाहाकार।वहॉं मौजूद लोगों ने पेल्हू गुरू के लौंडे को दौड़ाया, पर वह भाग गया। लोग इकट्ठा हो गए। यह सब देख क्रोध के मारे पेल्हू गुरू के नथुने फड़क रहे थे, शरीर क्रोध से कॉंप रहा था क्योंकि उन्हें आभास हो गया था कि कलाकारी में उनका लड़का उनसे कहीं आगे निकल गया था। बस वे इतना ही बोले, ‘सरवा बहुत हरामी हौ।’ पर तब तक उनका लौंडा गधे की पूँछ पकड़ा हज़ारों के गोदान करा चुका था। गुरू के लड़के तीन थे,बछिया दो थी। छोटका लड़कवा पहुँचा हुआ था। वह बछिया के अभाव में गधे से गोदान करा रहा था। सभी जीवों में परमात्मा का वास मानने वाले बनारस मे वैसे भी यह सामान्य बात है।
पेल्हू गुरू की कहानी का वक्त कब का गुजर गया। बचपन भी चला गया।अब न वह गंगा है, न आस्था, न घाटों पर वह धार्मिकता। गोदान वाली बछिया भी नही दिखती। पंडे गोदान के एवज़ में पेटीएम से दक्षिणा ले लेते हैं। घाट पर सारे मठ और घर अब होटल में तब्दील हो गए हैं। बनारस के घाट मुम्बई की चौपाटी की शक्ल ले रहे हैं। अब सवाल यह भी है कि पंडे ठगी छोड़ें तो छोड़ें कैसे ? समाज में हर किसी के श्रम और मज़दूरी के न्यूनतम दाम तय हैं पर पंडितों के नहीं। दुनिया २१ वी सदी में है, सबकी आमदनी बढ़ी है। चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं। लोग लाखों की शादी करते हैं पर पंडित की दक्षिणा ११ या २१ रूपये के आगे नहीं बढ़ रही है। उनकी भी घर गृहस्थी का खर्च है, आखिर वो ऐसी कलाकारी न करे तो करे क्या ?