न्यायिक फैसले की आलोचना गलत कैसे ? सी. सी. एक्ट सेक्शन 5

के. सत्येन्द्र

कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट का मतलब जाने बग़ैर बेफ़िजूल में तमाम महाज्ञानी लोग तमाम तरह की भ्रांतियाँ फैलाते रहते हैं । कोर्ट के ग़लत फ़ैसलों की आलोचना करना बिल्कुल भी गलत नही है। ऐसा मैं कंटेप्ट ऑफ कोर्ट एक्ट के सेक्शन 5 से मिले अपने अधिकार के तहत कर सकता हूँ। ये क़ानून नागरिकों को अधिकार देता है कि वे कोर्ट के किसी फ़ैसले के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करते हुए उसकी आलोचना कर सकें । जज आलोचना से बच नहीं सकते। वैसे भी कोर्ट में अपील की व्यवस्था ही इसलिए है कि अगर फ़ैसला ग़लत है तो उसे ठीक किया जा सके। कई बार संसद को सुप्रीम कोर्ट के ग़लत फ़ैसलों को ठीक करना पड़ता है। एससी एसटी एक्ट में यही करना पड़ा था। जज आदमी ही है,और इस नाते उनमें तमाम इंसानी कमज़ोरियाँ हो सकती हैं। वह नशेबाज हो सकते हैं, पक्षपाती हो सकते हैं । आम आदमी की तरह उनमें कई खामियां, तमाम तरह की भावनाएं दुर्भावनाएं और राग द्वेष हो सकते हैं ।

जजों के बारे में संविधान सभा में बाबा साहब ने संविधान सभा में जो कहा था उसे जजों को पढ़ना चाहिए। 24 मई, 1949 में बाबा साहब ने कहा था “मैं निजी तौर पर मानता हूं कि जज महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं लेकिन आखिर हैं तो वे इंसान ही । उनमें आम आदमियों की तरह तमाम खामियां, तमाम तरह की भावनाएं और राग-द्वेष हो सकते हैं ।”इसलिए जजों को जज बनाने या नियुक्त करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता”। पूरी संविधान सभा ने बाबा साहब की बात मानी। बहुत सोच समझकर संविधान में कॉलेजियम सिस्टम नहीं रखा गया था। 1992 में केंद्र में जब कमजोर इच्छाशक्ति वाली सरकार आई तो न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति का पावर अपने हाथ में ले लिया ।

भगत सिंह ने कहा था कि यदि कोई तुम्हारे मौलिक अधिकारों का हनन करे तो न सिर्फ उसका विरोध करो बल्कि उस अहंकारी और मगरूर ब्यवस्था को मिटा कर रख दो । बहुत दिनों तक लिखने-पढ़ने के बाद यह अनुभव हुआ है कि न्यायालय में न्याय एक ऐसी असंभव प्रक्रिया है जिसके तहत सरकारें नियम कानून सिर्फ जनता को परेशान करने के लिए बनाती हैं। किसी भी समस्या का हल न निकले ,दोषी को कभी सज़ा न मिले,और कमजोर निर्दोष जेल में ही ठूँसा रहे । बदकिस्मती से ऐसी ही न्यायप्रक्रिया है इस देश की । भारत एक ऐसा देश है जहाँ का कानून तमाम ख़ामियों से भरा होने के बावजूद इसके नायाब होने का ढिंढोरा पूरी बेशर्मी के साथ पीटा जाता है । यहाँ कानूनन 13 साल से ऊपर के बच्चे को वयस्क मानकर उसका पूरा टिकट वसूल किया जाता है लेकिन 16 साल के बलात्कारी को अवयस्क मानकर रियायत दे दी जाती है । यहाँ शराब और गुटखे के पाउच पर सेहत के लिए हानिकारक है लिखकर बेचा जा सकता है लेकिन पटाखों पर पर्यावरण के लिए हानिकारक है लिखकर उसे फोड़ा नही जा सकता ।

अंग्रेजी की एक कहावत है “रूल्स आर मेड फ़ॉर फूल्स” मतलब नियम कानून सिर्फ मूर्खों के लिए बनाए गए हैं । यहाँ मूर्ख का अर्थ मात्र ऐसे लोगों से है जो कानून से ही चलना चाहते हैं लेकिन एक न एक दिन कानून के ही चुंगल में फंसा दिए जाते हैं । इसके ठीक उलट हिंदी में एक कहावत है “समरथ को नही दोष गुसाई” मतलब नियम कानून को मानने की बाध्यता हमेशा कमजोर अर्थात मूर्खों के लिए होती है । कमजोर के लिए अपने को निर्दोष साबित करना केवल तभी संभव हो सकता है जब खुद उसके पास वैसी या उससे बड़ी ताकत आ जाये या फिर वह हर स्तर पर लड़ने के लिए तैयार हो जाये । चाटुकारिता में लबरेज शख्सियतों को तथा अपनी जीभ से हुक्मरानों के जूते चमकाने वालों को यह याद रखना चाहिए कि जस्टिस वर्मा जी ने कहा था कि“Supreme Court is the supreme but not infallible “

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