तुम मुझे अल्टर कहो, बवाली कहो, पगलेट कहो, बज्र माधर कहो या सनकी लेकिन मेरा मानना है कि मुकदमा पत्रकारिता का आभूषण है । ये हो ही नही सकता कि पत्रकारिता करते हुए कोई पत्रकार सच्चाई दिखाए, जैसे को तैसा दिखाए और मुकदमो से भी बचा रहें । अपने जमीर को गिरवी रखे बगैर सही मायनों में पत्रकारिता करने वाले झूठे मामलों में कैसे प्रताड़ित हो रहे हैं यह किसी से छुपा नही है । खबरों को दिखाने के चक्कर में पत्रकारों की अदावत पुलिस, प्रशासन, नेता, नौकरशाह और क्रिमिनलों से होती रहती है। पत्रकारों को उनके काम के लिए जितने पैसे नहीं मिलते, उससे कहीं ज्यादा तो वो दुश्मन बना लेते हैं। तुम कह सकते हो कि इस तरह की पत्रकारिता और कारनामे वही करते है जिनके घर बार नही होते या जिन्हें घर बार से मोह नही होता । अरे भाई घर बार है परिवार है और इतना मोह है तो किसने कहा कि पत्रकारिता कर लो । पत्रकार तो वीरप्पन जैसे खूंखार डकैतों के अड्डों तक निडर होकर पहुँच जाते थे । सरकार की बात पहुँचाने के लिए मध्यस्थता का जरिया बन जाते थे लेकिन आज दलाली मक्कारी चापलूसई तथा गिरहकट्टई में लिप्त लगभग ज्यादातर मीडिया संस्थान पत्रकारों को नौकरी देने से पहले यह जान लेना चाहता है कि कही पत्रकार पर कोई मुकदमा तो नहीं । इसका सीधा सा मतलब है कि ये मीडिया संस्थान मालिक जैसे खुद माधर टाइप के हैं वैसे ही सोभड़ी वाले टाइप के पत्रकार भी ये अपने संस्थान के लिए ढूंढते हैं । कुदरत का कहर भी ऐसा की ये जितना बड़ा माधर टाइप पत्रकार अपने यहाँ रखने की तलाश करते हैं उससे भी कहीं बड़का टाइप का माधर पत्रकार इन्हें मिल जाता है । मतलब बियॉन्ड टू एक्सपेक्टेशन ! नतीजा यह होता है कि पत्रकारिता हो या न हो चमचागिरी टॉप लेवल की होने लगती है ।आखिर हो भी क्यों न ? चमचागिरी तो एक ऐसा काम है जिसमे न तनख्वाह मिलती है और न इज्जत लेकिन फिर भी लोग इस काम को बड़ी वफादारी से करते हैं
ये दौर सोशल मीडिया का है। आज सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा बाढ़ पत्रकारों की है। 150 रुपये का माइक, फेसबुक और यूट्यूब पर एक चैनल और शुरु हो गई पत्रकारिता ! कंटेंट हो या न हो.. विषय वस्तु की जानकारी हो या न हो लेकिन सायकिल दुर्घटना की खबर तो चला ही लेंगे या फिर प्रेस कॉन्फ्रेंस में विषय आधारित जानकारी हो या न हो प्रेस नोट उठाकर उसे जस का तस अखबार में व्हाट्सएप्प पर ठेल देंगे । लड़की और लरकी के बीच का तथा मूकदर्शक और मुखदर्शक के बीच का फर्क पता नही है लेकिन सरऊ माधर करेंगे तो पत्रकारिता ही । 04 अक्टूबर 2023 को दैनिक जागरण के मुरादाबाद संस्करण में छपी खबर को ही पढ़ लीजिये । पत्रकारिता के ब्रह्मबेतालों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया । गणमान्य लोग पहुँचे की जगह “गांड मारने लोग पहुँचे” छाप दिया गया
इस मामले में पुलिस प्रशासन भी कम नही है क्योंकि इन्हें खाँटी पत्रकारों से तो ऐतराज हैं लेकिन हुक्म बजा लाने वाले पोस्टमैन टाइप के चुतियावीरों की इन्हें सख्त आवश्यकता रहती है । शायद इसलिए पुलिस प्रसाशन के मीडिया सेल ग्रुपों में इन लपोकियों की भरमार रहती है । इस तरह का पत्रकार बनने की एक और महत्वपूर्ण शर्त यह होती है कि पुलिस, प्रशासन के अधिकारियों और राजनेताओं के साथ आपकी सेल्फी और तस्वीर जरुर होनी चाहिए साथ ही ये तस्वीर आपके फेसबुक प्रोफाइल और व्हाट्सएप्प डी पी पर लगी होनी चाहिए। उसके बाद तो जलवे ही जलवे हैं । मुझे याद है कि राम मंदिर आंदोलन के वक्त जब पत्रकारों का एक हुजूम आन्दोलन को कवर कर रहा था तब नेता लोग जनता में जोश झोंकने के लिए की नारा लगा रहे थे कि “बच्चा बच्चा राम का” कोई जवाब न आता देख पत्रकारों ने पूछ लिया “क्या प्रबंध है शाम का ?” थोड़ी देर बाद फिर वही नारा नेताओं की जगह जब पत्रकारों ने लगाना शुरू कर दिया कि “बच्चा बच्चा राम का” तब प्रशासन ने पत्रकारों का मूड भांप लिया और जवाब दिया कि चिंता मत करिए “खूब प्रबंध है शाम का “
के. सत्येंद्र….!