पिछले दिनों यूपी में यूपी पुलिस के साथ घट रही घटनाएं बता रही है कि स्थितियों को समझदारी परिपक्वता और चतुराई से सम्भालने की बजाय हनक के घोड़े पर सवार होकर अक्सर उसे दबाने के प्रयास किये जाते हैं । अभी बनारस में थानेदार साहब की पब्लिक द्वारा की गयी पिटाई का मामला शांत भी नही हुआ था तब तक गोरखपुर में पुलिस की पिटाई का मामला सामने आ गया । गोरखपुर के मामले में उत्पाति मनबढ़ भीड़ द्वारा किये गए इस कृत्य को कहीं से भी उचित नही ठहराया जा सकता । लेकिन भरी अदालत में जज से रंगबाजी कर सुर्खियां बटोरने वाले कैंट थानेदार संजय सिंह के खिलाफ गोरखपुर के अधिवक्ता गण मोर्चा खोलते हुए आखिर दो दिन से हड़ताल पर क्यों हैं ?
न्यायिक कामकाज ठप्प पड़ा है । सिकरीगंज के मामले में बताया जा रहा है कि यहां बीते रविवार की शाम दो पक्षों के विवाद की सूचना पर पहुंची पुलिस टीम पर आरोपियों ने अचानक हमला कर दिया। भीड़ ने चौकी इंचार्ज और सिपाही को बंधक बनाकर इस कदर पीटा कि चौकी इंचार्ज बेहोश हो गए। मौके पर पहुंची थाने की पुलिस ने उन्हें भीड़ के चंगुल से निकालकर अस्पताल पहुंचाया लेकिन गंभीर हालत देखते हुए डॉक्टरों ने उन्हें मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया । पुलिस ने इस मामले में मुकदमा दर्ज कर आरोपियों की धर पकड़ शुरू कर दी है। वहीं दूसरी तरफ थाना कैंट के थानेदार साहब से अधिवक्ताओं का मामला गरम होने का कारण यह बताया जा रहा है कि एक अधिवक्ता के ऊपर हुए जानलेवा हमले के आरोपियों के खिलाफ गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज होने के बाद भी थानेदार साहब द्वारा उन्हें थाने से ही छोड़ दिया गया जबकि थानेदार साहब के थाने में दर्ज छोटे से छोटे मुकदमे में भी आरोपी को गिरफ्तारी नोटिस तड़ाक से भेज देने का पुराना रिवाज रहा है । अब अधिवक्ता बंधुओं को यह समझना चाहिए कि जब थानेदार साहब जज से बदतमीजी कर थाने की जीडी में जज साहब के विरुद्ध ही तस्करा डाल सकते हैं तो फिर आपलोग थानेदार साहब से न्याय का कौन सा मुगालता पाले बैठे हुए हैं ?
हर व्यक्ति स्वयं के बारे में सबसे अधिक जानता है साथ ही दूसरों को उसके मूल्यांकन का हक़ भी है ,लेकिन पूर्वाग्रह,कुंठा,अहंकार तथा बदले की भावना से ग्रसित होकर बगैर किसी ठोस सबूत के किसी के विषय मे निर्णय पर पहुँच जाना व्यक्ति के अपरिपक्वता और अहंकार को दर्शाता है । आत्मचिंतन करने का महत्वपूर्ण विषय यह है कि वर्तमान परिवेश में पुलिस के तमाम मानवीय कार्यों और बलिदानों को लोग भूलकर पुलिस पर ही हमलावर हो जा रहे हैं तो आखिर क्यों ? आज पुलिस द्वारा दर्ज किए गए फर्जी मुकदमों पर हाइकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अक्सर तीखी टिप्पणियां करता चला आ रहा है तो आखिर क्यों ? पुलिस वालों के अपराध में शामिल होने के मामले लगातार सामने आते रहने के बाद अब उनकी औलादों का भी अपराध जगत में पदार्पण हो रहा है तो आखिर क्यों ?
क्या पुलिस सेवा में आने वाले लोग,आम लोगों के बीच भय व्याप्त कर सफल हो सकते हैं ? “क्या पुलिस की ट्रेनिंग काम करने की नही बल्कि उसे उलझाने की होती है किसी को बेवजह फंसाने की होती है ? ऐसा नही है बल्कि ऐसे लोग बस अपनी सनक को जीते हैं । सलामी को जीते हैं । इसी को काम समझते हैं । इसी को अपना हक समझते हैं । जब तक टूँ टूँ करती गाड़ी है, तबतक ताकत है । गाड़ी गयी तो ताकत भी गयी ।” शायद इसीलिए लखनऊ में एक रिटायर्ड पुलिस अफसर ने जब आत्महत्या कर ली थी तब आत्महत्या से पूर्व अपने नोट में लिखा था कि “मैं अपनी ताकत खो चुका हूँ इसलिए अब जीने की इच्छा नही रही ।” आखिर ये पंक्तियां उनकी किस कमजोरी को उजागर करती है ? यही कि पद,पैसा,हनक लोगों पर राज करने के औजार हैं । जब तक औजार है आप ताकतवर हैं । औजार न होने पर कमजोरी का अहसास तो होगा ही ।“मृत्यु से कुछ समय पूर्व स्मृति बहुत साफ हो जाती है । जन्म भर के अपने पाप और घटनाएं एक एक कार सामने आती हैं । सारे दृश्य और रंग साफ होते हैं । समय की धुंध उनपर से हट जाती है ।” बड़े बड़े विश्लेषक यह मानते हैं कि कागजों में फिजाओं का रंग भले गुलाबी दिखाई दे रहा हो लेकिन पुलिस में व्यवस्थित और वैज्ञानिक तरीके से काम न होने के कारण ऐसे कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं जिससे प्रदेश की सुंदर सलोनी लग रही इस कानून व्यवस्था से लोगों का मोहभंग हो सकता है ।