महाकुंभ के हादसे ने विचलित कर दिया है । आमजनों के साथ मैं भी पीड़ा में हूँ , निःशब्द हूँ और मौन भी हूँ, लेकिन ऐसे समय मे भी लिखने को इसलिए मजबूर हूँ क्योंकि इस त्रासदी से हटकर अब भी कई गिद्ध स्वार्थ की आसुरी छाया में अपने स्वार्थों को जस्टिफाई कर अपने मंसूबों की फ्रेमिंग करने में जुटे हुए हैं । बात यह है कि अपने शहर में पत्रकारिता के दो धुरंधर गुटों के बीच पिछले कुछ दिनों से जबरदस्त रस्साकसी चल रही है । एक अकेला है जो चीनी चायपत्ती का भी मोहताज है तो दूसरे के पास है अथाह सल्तनत की आर्थिक फंडिंग ! सुनने में आया है कि ये रस्साकसी जब पुलिस तक पहुंची, तभी से गोरखपुर के सोशल मीडिया में कुछ लोगों द्वारा पैराग्राफ टाइप कर श्लोगन रेलना शुरू कर दिया गया कि “पुलिस के डर से घर मे छिपे रहे फर्जी पत्रकार” “फर्जी पत्रकारों की गाड़ियों से गायब हुए स्टीकर” “हर थाना कर रहा पत्रकारों की पड़ताल”..और न जाने क्या क्या ? पता चला कि पत्रकार बिरादरी तो इन श्लोगनो से बेपरवाह बैठी थी, लेकिन सड़क पर सेवई बेचने से लेकर पंचर बनाने जैसा अतीत संजोए कुछ लोगों ने ये श्लोगन सोशल मीडिया में डाल डाल कर यह जताना शुरू कर दिया कि सही मायनों में सिर्फ वही लोग अपने घरों से बाहर घूम रहे हैं और सिर्फ वही असल मायनों में पत्रकार हैं । अरे भाई जब क्लर्क की नौकरी के लिए इस देश मे परीक्षा पास करनी जरूरी है तो फिर पत्रकार कहलाने के लिए भी प्रशासन को एक परीक्षा और सिलेबस तो अब घोषित करवा ही देना चाहिए ताकि बार बार का ये खोपड झमझम खत्म हो । इससे पता चल जाएगा कि नॉन हाइस्कूल से लेकर ग्रैजुएट तक, और “(बी.जे.) बड़का जर्नलिस्ट” से लेकर “(एम.जे.) महा जर्नलिस्ट तक” सबको पत्रकारिता और विषय वस्तु का कितना ज्ञान है । साथ ही यह पता भी चल जाएगा कि ये अर्जित ज्ञान वास्तव में है भी या फिर जुगाड़ डिग्री पर आधारित है । यदि इस समस्या का निवारण चाहिए तो पत्रकारिता की पात्रता के लिए अविलंब इस संबंध में परीक्षा तिथि घोषित कर देनी चाहिए । यकीन मानिए, कि तिथि घोषित होने के बाद परीक्षा में… सौ में से दस ही पहुंचेंगे, और रिजल्ट बिना कॉपी जांचे ही डिक्लेअर हो जाएगा !
पत्रकार कौन कहलाएगा, यह सवाल आजकल बहुत ज्यादा उठता है, खासकर जब मीडिया के क्षेत्र में वृद्धि और उसके व्यापक प्रभाव के कारण कभी-कभी इसे संदेह की नजर से देखा जाता है। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है सच्चाई की तलाश करना और उसे समाज तक पहुंचाना। लेकिन जब यह सवाल उठता है कि पत्रकार कौन कहलाएगा, तो यह मामला सिर्फ पेशेवर जिम्मेदारियों और नैतिकताओं का नहीं, बल्कि कानूनी और सामाजिक पहचान का भी बन जाता है। बदकिस्मती से अब तक हमारे देश में पत्रकारिता की कोई ठोस कानूनी परिभाषा नहीं है, यानी कोई ऐसा कानून नहीं है जो यह स्पष्ट रूप से कह सके कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं। पत्रकारिता से जुड़ी कोई विशेष मान्यता देने वाला एक केंद्रीय कानून नहीं है, लेकिन इसके लिए विभिन्न दिशानिर्देश और कर्तव्यों की एक व्यापक परंपरा है।
क्या सरकार इस संबंध में अब तक कोई कानून लायी है ?
अब तक भारतीय सरकार इस विषय में कोई विशेष कानूनी ढांचा नहीं ला सका है, जिससे यह तय किया जा सके कि पत्रकार कौन कहलाएगा। हालांकि, कुछ सरकारों ने पत्रकारों के लिए ‘प्रेस कार्ड’ जारी करने का तरीका निर्धारित किया है, लेकिन प्रेस कार्ड मात्र कार्यस्थल पर पहचान के लिए है, न कि पत्रकारिता के असली हक़ को प्रमाणित करने के लिए। कई राज्य सरकारों ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए प्रेस क्लब तथा अन्य संगठनों द्वारा एक पहचान पत्र जारी किया है, लेकिन यह पहचानपत्र केवल पत्रकारों के कार्यों की सुविधा और सुरक्षा के लिए होता है, इसे किसी कानूनी दस्तावेज के रूप में स्वीकार नही किया जाता है।
भारत में पत्रकारिता से संबंधित कानूनों में “प्रेस और पब्लिकेशन एक्ट” (1950) और “प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया एक्ट” (1978) जैसे कुछ प्रमुख प्रावधान हैं, जो पत्रकारिता के गुण और इसकी स्वतंत्रता को संरक्षित करने के लिए काम करते हैं, लेकिन यह विशेष रूप से यह नहीं बताते कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं। दूसरी ओर, जब हम यह बात करते हैं कि क्या सरकार फर्जी पत्रकारों के खिलाफ कोई कदम उठाएगी, तो यह सवाल पहले से ही गरम है। कुछ राज्य सरकारें और पुलिस विभाग इस मुद्दे पर संज्ञान ले रहे हैं और अपनी ओर से कदम उठाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे कि फर्जी पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करना। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह कदम हमेशा निष्पक्ष और सही दिशा में उठाए जाते हैं और क्या फर्जी पत्रकार के रूप में किसी की पहचान करने की कोई विधिक व्यवस्था अस्तित्व में है ?
सच्चाई यह है कि पत्रकारिता के पेशे को सुरक्षित रखने के लिए सरकार को एक समग्र, स्पष्ट और कड़े कानून की जरूरत है, ताकि यह तय किया जा सके कि कौन असली पत्रकार है और कौन नहीं। साथ ही, इस कानून का उद्देश्य पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें काम करने की स्वतंत्रता देना होगा, न कि उन पर निगरानी रखना। यह सही है कि आजकल कई पत्रकार पत्रकारिता की आड़ में अपना व्यवसाय चला रहे हैं, या फिर पत्रकारिता को ही अपना व्यवसाय बना चुके हैं जिससे असली पत्रकारों की मेहनत और संघर्ष पर असर पड़ता है। यदि कोई कानूनी मान्यता मिल जाए, तो इसका फायदा सच्चे और ईमानदार पत्रकारों को मिल सकता है, और यह पत्रकारिता के सम्मान को भी बढ़ा सकता है। जब तक पत्रकारों के पहचान की कोई विधिक व्यवस्था लागू न हो जाये तबतक हर एक पत्रकार के “सोर्स ऑफ इनकम” की जाँच की व्यवस्था अनिवार्य रूप से लागू कर देनी चाहिए ताकि पता चल सके कि पत्रकार के जेब मे पत्रकारिता की चिड़िया ने सोने का अंडा देना कब से शुरू किया ।
भारतीय संविधान की उद्देशिका हर पत्रकार को यह अधिकार और जिम्मेदारी प्रदान करती है कि वह स्वतंत्र रूप से सच्चाई को जनता तक पहुंचाए। लेकिन जब सिस्टम और तंत्र खुद पत्रकारों के बीच “फर्जी” और “असल” का फैसला करने लगती है, तो यह हास्यास्पद स्थिति किसी मजेदार कहानी से कम नहीं होती । इसके पीछे कोई गहरी नीति या सिद्धांत नहीं, बल्कि एक खतरनाक तरीका छुपा होता है, जिसमें पत्रकारिता को खेल और सर्कस के रूप में देखे जाने की दशा और दिशा तैयार की जाती है। पुलिस विभाग में अक्सर एक बड़ा मुद्दा यह होता है कि ‘समानांतर’ या ‘सिद्धांत’ की तरह, यहाँ हर चीज को ठीक से नहीं देखा जाता । ठीक वैसे ही, सिस्टम और तंत्र की नजर में पत्रकार भी वही होता है जो तंत्र के आंतरिक मामलों पर कभी सवाल न उठाए और हमेशा उसके “पॉजिटिव” कामों को ही लिखे…. इसलिए मैंने भी आजकल ऐसा ही करना शुरू कर दिया है । आप भी करना शुरू कर दीजिए, नहीं तो पत्रकारिता की राजकुर्सी छीनी जा सकती है !