गोरखपुर : ख़बर है कि पिछले काफी समय से पार्टी की छवि कैश कराकर इंटर कॉलेज और पेट्रोल टंकी की स्थापना कर डालने वाले कथित नेताजी पर अब मोहल्ले के दलाल भूमाफिया अपने अपने डोरे डालना शुरू कर चुके हैं । कथित नेताजी का विकास प्रेम तो ऐसा है कि अपना खुद का विकास उन्होंने लकड़ी चोरी के धंधे से शुरू किया और आज भी उनका ये धंधा बड़ा उम्दा चल रहा है । नेताजी अक्सर गलत काम के लिए अधिकारियों पर पार्टी के नाम से दबाव बनाते हैं और उस दबाव की आड़ में अवैध काम कराने का दाम वसूलते रहे हैं । इस बार नेताजी ने अवैध निर्माण का ठेका ले लिया और नक्शा पास करवाने के बाद नक्शे के हिसाब से निर्माण कराने के झंझट को ही पूरी तरह विकास मुक्त कर दिया । उनका मानना है कि जब नियम नाम की चीज़ रद्दी हो चुकी है, तो घर को क्यों न रद्दी पर ही खड़ा कर दिया जाए ? और फिर, “हम तो नेताजी हैं,भले कथित हों…. हमें कौन रोकेगा ?” – बस यही तो नेताजी का महापुरुषीय मंत्र है !
अब हुआ यूं कि नेताजी अवैध निर्माण में व्यस्त थे, यानी “घर” नहीं बना रहे थे, बल्कि सत्ता से चोरी छिपे सत्ता के नाम का दुरुपयोग करने का प्रतीक गढ़ रहे थे । लेकिन तभी आ गए एक “शिकायतकर्ता” — वह दुर्भाग्यशाली प्राणी जिसने लोकतंत्र को कुछ ज़्यादा ही सीरियसली ले लिया । नेताजी ने पहले तो उसे डपट दिया, फिर सड़कछाप पत्रकारों की सलाह पर उस पर ही मुकदमा लिखवा डाला । नेताजी इन दिनों कुछ ज़्यादा ही ‘विकासशील’ हो गए थे । एक तो नक्शे के विपरीत मकान ठोक डाला — और उस पर तुर्रा ये कि जो शिकायत करे, उसे ही मुकदमे में फंसा दो । क्योंकि नेताजी को सलाह मिली थी ‘सड़कछाप मीडिया एक्सपर्ट्स’ से – जिनका पत्रकारिता से उतना ही लेना-देना रहा है जितना नेताजी का नियम-कानून से !
नेताजी ने सोचा कि ऐसा करते ही विरोधी के होश उड़ जाएंगे और वह डर से या तो गाँव भाग जाएगा या नेताजी के पैर पकड़कर ‘माफ कर दीजिए मालिक’ कहेगा । लेकिन, नेताजी भूल गए थे कि अब ज़माना बदल चुका है, और कोर्ट कचहरी पत्रकारिता की तरह व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी से नहीं, बल्कि संविधान से चलता है । शिकायतकर्ता सीधे हाईकोर्ट पहुंचा और वहां से जब निर्णय आया, तो नेताजी के महलनुमा जुगाड़ को उसी अफसर ने सील करने का फरमान जारी कर दिया, जिसे नेताजी अब तक गर्व से अपना “पड़ोसी” बता रहे थे । अब नेताजी मौन हैं । उनका बड़बोलापन, जो पहले IAS अफसरों को फोन पर हड़काया करता था, अब ईंटों के नीचे दब गया है । सबसे ज़्यादा हतप्रभ तो वे चाय की दुकान पर बैठने वाले पत्रकार हैं, जो हर तीसरे दिन खुद को “डिजिटल रिपोर्टर” कहकर नेताजी को सलाह देते थे कि “डराइए, धमकाइए, मुकदमा करिए, हम हैं ना !” अब वही पत्रकार सोच रहे हैं कि, “अच्छा हुआ जो हमनें इस फर्जी मुकदमे की ख़बर नहीं छापी वरना हम भी सील हो जाते…”
अब रही सही कसर पूरी कर रहे हैं मोहल्ले के भूमाफिया लोग ! जो नेताजी के अवैध निर्माण को देखकर कह रहे हैं — “भैया जी, जब सब कुछ सील हो ही गया है तो बेच दीजिए हमें, कम से कम प्लॉट तो बचेगा ।” अब नेताजी वही सोच रहे हैं, “इससे अच्छा तो सच मान लेते और मामला निपटा लेते” खामख्वाह इन सुतियों के चढ़ावे में आकर फर्जी मुकदमा लिखा बैठे !
गलत होते हुए भी गाल बजाने में माहिर कथित नेता जी बड़े ईगो स्टिक आदमी हैं । नेताजी की सोच अब भी वहीं अटकी है जहां से उन्होंने राजनीति की दलाली शुरू की थी । नेताजी अब सोच रहे हैं कि “ थानेदार के खिलाफ कान भरके थानेदार को बदलवा देते हैं..प्राधिकरण के खिलाफ चुगली कर उसका भी बैंड बजवा देते हैं । लेकिन जब चायवाले पत्रकार, पड़ोसी अफसर, भूमाफिया मित्र सब एक साथ एक ही स्क्रिप्ट पर काम करने लगें, तो नेताजी के ‘डायलॉग’ सिर्फ गूंजते रह जाते हैं, असर नहीं करते ।
नेताजी फिलहाल ‘सील’ मोड में हैं, और मोहल्ले के भूमाफिया उन्हें उनका निर्माण खरीदने का प्रस्ताव दे रहे हैं । चायवाले पत्रकार कहीं दिखाई नही दे रहे हैं और शिकायतकर्ता धूनी रमाये बैठा है कि कथित नेताजी अपनी गलती मान लें तो मामला खत्म हो ।